21-01-1980     ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"बाप को प्रत्यक्ष करने की विधि"

आज बाप-दादा परमात्म ज्ञान के प्रत्यक्ष स्वरूप अर्थात् प्रैक्टिकल डबल रूप बच्चों को देख रहे हैं। एक माया प्रूफ, दूसरा श्रेष्ठ जीवन का वा ब्राह्मण जीवन का, ऊँचे-से-ऊँचे अपने अलौकिक जीवन, ईश्वरीय जीवन का पु्रफ। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रुफ है - `श्रेष्ठ जीवन'। ऐसे डबल प्रूफ बच्चों को देख रहे हैं। सदा अपने को परमात्म-ज्ञान का प्रत्यक्ष प्रमाण वा प्रूफ समझने से सदा ही माया प्रूफ रहेंगे। अगर प्रत्यक्ष प्रमाण में कोई कमज़ोरी होती है तो परमात्म-ज्ञान का भी जो चैलेन्ज करते हो उसको मान नहीं सकेंगे। क्योंकि आजकल साइन्स के युग में हर बात के प्रत्यक्ष प्रमाण व प्रूफ के द्वारा ही समझना चाहते हैं। सुनने-सुनाने से निश्चय नहीं करते। परमात्म ज्ञान को निश्चय करने के लिए प्रत्यक्ष प्रूफ देखना चाहते हैं। प्रत्यक्ष प्रूफ है आप सबका जीवन। जीवन में भी यही विशेषता दिखाई दे जो आज तक कोई भी आत्म-ज्ञानी महान आत्मायें कर न सकी हों, बना न सकी हों। ऐसी असम्भव से सम्भव होने वाली बातें परमात्म-ज्ञान का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। सबसे बड़ी असम्भव, सम्भव होने वाली बात `प्रवृत्ति में रहते पर-वृत्ति में रहना'। प्रवृत्ति में रहते इस देह और देह की दुनिया के सम्बन्धों से परे रहना। पुरानी वृत्ति से पर रहना अर्थात् परे रहना, न्यारा रहना। इसको कहा जाता है पर-वृत्ति। प्रवृत्ति नहीं लेकिन पर-वृत्ति है। देखते देह को हैं लेकिन वृत्ति में आत्मा रूप है। सम्पर्क में लौकिक सम्बन्ध में आते हुए भी भाई-भाई के सम्बन्ध में रहना। इस पुराने शरीर की आँखों से पुरानी दुनिया की वस्तुओं को देखते हुए, न देखना। ऐसे प्रवृत्ति में रहने वाले अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र जीवन में चलने वाले - इसको कहा जाता है, `परमात्म ज्ञान का प्रूफ'। जो महान आत्मायें भी असम्भव समझती हैं लेकिन परमात्म ज्ञानी अति सहज बात अनुभव करते हैं। वह असम्भव कहते, आप सहज कहते हो। सिर्फ कहते नहीं हो लेकिन दुनिया के आगे बन करके दिखाते हो। अब तक भक्त माला के पहले, दूसरे दाने भी परमात्म-मिलन को बड़ा मुश्किल, बहुत जन्मों के बाद भी मिले या न मिले - यह भी निश्चित नहीं समझते। एक सेकेण्ड के साक्षात्कार को महान प्राप्ति समझते हैं। साक्षात् बाप अपना बन जाए व अपना बना दे, इसको असम्भव समझते हैं। वह लम्बी खजूर कहकर दिलशिकस्त हो जाते हैं। और आप सब लम्बी खजूर के बजाए घर बैठे कल्प-कल्प का अपना अधिकार अनुभव करते हो। वह मिलना मुश्किल समझते हैं और आप मिलना अधिकार समझते हो। अधिकारी जीवन अर्थात् बाप के सर्व खज़ानों से भरपूर जीवन। यह प्रेक्टिकल अनुभवी जीवन भी विशेष परमात्म-ज्ञान का प्रमाण अर्थात् प्रूफ है। परमात्मा कहना अर्थात् बाप कहना। बाप के सम्बन्ध का प्रूफ है - वर्सा। आत्म ज्ञान का व महान आत्माओं का सम्बन्ध भाई-भाई का है। बाप नहीं है, इसलिए वर्सा नहीं है। आत्म ज्ञानी महान आत्मायें आत्मा भाई-भाई हैं, परमात्मा बाप नहीं है। इसलिए अविनाशी वर्सा चाहते हुए भी उसका अनुभव नहीं पा सकेंगे। परमात्म ज्ञान का सहज प्रूफ जीवन में वर्से की प्राप्ति है। यह अविन्शी ज्ञान, प्राप्ति का प्रूफ जीवन में वर्से की प्राप्ति है। यह अविनाशी ज्ञान, प्राप्ति का अनुभवी जीवन, परमात्मा को प्रत्यक्ष कर सकती है। तो यह विशेष प्रमाण हो गया।

सिर्फ पुरुषार्थी कहना अर्थात् प्राप्ति से वंचित रहना

बाप को प्रत्यक्ष करना - यह नये वर्ष का दृढ़ संकल्प लिया है? सभी ने संकल्प लिया है ना। तो प्रत्यक्ष करने का साधन है डबल प्रूफ बनना। तो चेक करो यह प्रत्यक्ष प्रमाण `प्यूरिटी और प्राप्ति' दोनों ही अविनाशी हैं! अल्पज्ञ आत्मा अल्पकाल की प्राप्ति कराती हैं। अविनाशी बाप `अविनाशी' प्राप्ति कराते हैं। परमात्म मिलन वा परमात्म ज्ञान की विशेषता है ही अविनाशी। तो अविनाशी हैं ना। आप कहेंगे पुरुषार्थी हैं। लेकिन पुरूषार्थ और प्रत्यक्ष प्रालब्ध यही परमात्म प्राप्ति की विशेषता है। ऐसे नहीं कि संगमयुगी पुरुषार्थी जीवन है और सतयुगी प्रालब्धी जीवन है। लेकिन संगमयुग की विशेषता है - एक कदम उठाओ और हजार कदम प्रालब्ध में पाओ। और कोई भी युग में एक का पद्मगुणा होकर मिलने का भाग्य है ही नहीं। यह भाग्य की लकीर स्वयं भाग्य विधाता बाप अभी ही खींचते हैं, ब्रह्मा बाप द्वारा। इसलिए ब्रह्मा को `भाग्य विधाता' कहते हैं। गायन भी है ब्रह्मा ने जब भाग्य बाँटा तो सोये हुए थे क्या? संगमयुग की विशेषता - पुरूषार्थ और प्रालब्ध साथ-साथ की है। और ही सतयुगी प्रालब्ध से भी विशेष बाप की प्राप्ति की प्रालब्ध अभी है। अब की प्रालब्ध है - परमात्मा के साथ डायरेक्ट सर्व सम्बन्ध। भविष्य प्रालब्ध है देव आत्माओं से सम्बन्ध। अब की प्राप्ति और भविष्य की प्राप्ति का अन्तर तो समझते भी हो और सुनाया भी था। तो पुरुषार्थी नहीं लेकिन श्रेष्ठ प्रालब्धि हैं - ऐसे समझकर हर कदम उठाते हो? सिर्फ पुरुषार्थी कहना अर्थात् अलबेला बन और प्रालब्ध वा प्राप्ति से वंचित रहना। प्रालब्धि रूप को सदा सामने रखो। प्रालब्ध देखकर सहज ही चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। संगमयुग की विशेषताओं का सदा स्मृति स्वरूप बनो तो विशेष आत्मा हो ही जायेंगे।

``पाना था सो पा लिया'' - सदा यह गीत गाते रहो।

चलते-चलते कई बच्चों को मार्ग मुश्किल अनुभव होने लगता है। कभी सहज समझते हैं, कभी मुश्किल समझते हैं। कभी खुशी में नाचते हैं, कभी दिलशिकस्त हो बैठ जाते हैं। कभी बाप के गुण गाते और कभी `क्या'और `कैसे' के गुण गाते हो। कभी शुद्ध संकल्पों के सर्व खज़ानों के प्राप्ति की माला सुमिरण करते, कभी व्यर्थ संकल्पों के तूफान वश `मुश्किल है', `मुश्किल है' - यह माला सुमिरण करते हैं। कारण क्या? सिर्फ पुरुषार्थी समझते हैं, प्रालब्ध को भूल जाते हैं। छोड़ना क्या है - उसको सामने रखते हैं और लेना क्या है उसको पीछे रखते हैं। जबकि छोड़ने वाली चीज़ को पीछे किया जाता है, लेने वाली चीज़ को आगे। कभी भी लेने समय पीछे हटना नहीं होता, आगे बढ़ना होता है। `लेना' स्मृति में रखना अर्थात् बाप के सम्मुख होना। छोड़ने के गुण ज्यादा गाते हो। यह भी किया, यह भी करना है वा करना पड़ेगा। इसको ज्यादा सोचते हो। क्या मिल रहा है वा प्रालब्ध क्या बन रही है, उसको कम सोचते हो। इसलिए व्यर्थ का वजन भारी हो जाता है। शुद्ध संकल्पों का वजन हल्का हो जाता है। तो चढ़ती कला के बजाए बोझ स्वत: ही नीचे ले आता है। अर्थात् गिरती कला की ओर चले जाते हो। ``पाना था सो पा लिया'' यह गीत गाना भूल जाते हो। यह एक गीत भूलने से अनेक प्रकार के घुटके खाते हो। गीत गाओ तो घुटके भी खत्म तो झुटके भी खत्म हो जाएँ। जैसे स्थूल गीत भी आपको जगाता है ना। यह अविनाशी गीत गाते रहो। ``पाना था सो पा लिया'' और प्राप्ति की खुशी में नाचते रहो। गाते रहो, नाचते रहो तो घुटके और झुटके खत्म हो जायेंगे। ऐसे डबल प्रूफ प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा बाप को प्रत्यक्ष करेंगे। यह है प्रत्यक्ष करने की विधि जो चलते-फिरते प्रत्यक्ष प्रमाण रूपी चेतन संग्रहालय रूप बन जाओ और चलता-फिरता प्रोजेक्टर बन जाओ। चरित्र-निर्माण प्रदर्शनी बन जाओ तो जगह-जगह पर प्रदर्शनी और म्यूजयम हो जायेंगे। खर्चा कम और सेवा ज्यादा हो जायेगी। खुद ही प्रदर्शनी बनो, खुद ही गाइड बनो। आजकल चलती-फिरती लायब्रेरी, प्रदर्शनियाँ बनाते हैं ना। तो 60 हजार ब्राह्मण 60 हजार चलते-फिरते प्रदर्शनियाँ म्यूजयम हो जाए तो प्रत्यक्षता कितने में होगी। समझा। इस वर्ष 60 हजार मूविंग प्रदर्शनियाँ वा प्रोजेक्टर सारे विश्व के चारों ओर फैल जाओ तो एकॉनामी की एडवरटाइजमेन्ट हो जायेगी। खर्चा करना नहीं पड़ेगा लेकिन खर्चा देने वाले आ जायेंगे। खर्चे के बजाए इनाम मिलेगा।

गुजरात तो बड़ा है ना। संख्या में तो बड़ा है ही। अब साक्षात् रूप में भी बड़े बनकर दिखाना। गुजरात की धरनी अच्छी है। जहाँ धरनी अच्छी होती हैं वहाँ पावरफुल बीज डाला जाता है। पावरफुल बीज है वारिस क्वालिटी का बीज। ऐसे वारिस का बीज डाल फल निकालो। फलीभूत धरनी अर्थात् सबसे श्रेष्ठ फल देने वाली। क्वान्टिटी तो बहुत अच्छी है। क्वालिटी भी है लेकिन और निकालो। एक- एक क्वालिटी वाले को वारिस ग्रुप का सबूत देना है। गुजरात में सहज निकल भी सकते हैं। अब विस्तार ज्यादा हो रहा है इसलिए वारिस छिप गये हैं। अब उनको प्रत्यक्ष करो। समझा - गुजरात को क्या करना है। दूसरे सम्पर्क में लावें, आप सम्बन्ध में लाओ तो नम्बर वन हो जायेंगे। इस वर्ष का प्लैन भी बता दिया। अभी विस्तार में बिजी हो गये हैं। जैसे वैराइटी वृक्ष बढ़ता है तो बीज छिप जाता है और फिर अन्त में बीज ही निकलता है। विस्तार में ज्यादा बिजी हो गये हो। अब फिर से बीज अर्थात् वारिस क्वालिटी निकालो। जो आदि में सो अन्त में करो।

सदा खुशी में नाचने वाले, प्राप्ति के गीत गाने वाले, प्रत्यक्ष फल को अनुभव करने वाले, अपने को प्रत्यक्ष प्रमाण बनाकर बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, ऐसे डबल प्रूफ श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

महादानी अर्थात् सदा अखण्ड लंगर चलता रहे

पार्टियों के साथ –

1. इस ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य ही है - नर से श्रीनारायण बनना वा श्रीलक्ष्मी बनना। तो सदा दिव्य गुण मूर्त देवता स्वरूप की स्मृति में रहने वाले हो! कभी भी अपना लक्ष्य भूलना नहीं चाहिए। सदा अपने दिव्य गुणधारी स्मृति स्वरूप - ऐसे रहते हो? लक्ष्मी स्वरूप अर्थात् धन-देवी और नारायण स्वरूप अर्थात् राज्य-अधिकारी। लक्ष्मी को धन देवी कहते हैं। वो धन नहीं लेकिन ज्ञान के खज़ानें जो मिले हैं उस धन की देवियाँ। सब धनदेवी हो ना। जो धन-देवी होगी वह सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न होगी। जब से ब्राह्मण बने हो तब से जन्मसिद्ध अधिकार में क्या मिला? ज्ञान का, शक्तियों का खज़ाना मिला ना। तो अधिकार साथ में रहता है, ना कि बैंक में रहता है? बैंक में रखेंगे तो खुशी नहीं होगी। बैंक में रखना अर्थात् यूज़ न करना, किनारे रखना। जितना यूज़ करेंगे उतना खुशी बढ़ेगी। इस खज़ानें को साथ में रखने से कोई भी खतरा नहीं है, जब महादानी वरदानी बनना है तो लॉकर में कैसे रखेंगे। इसलिए रोज अपने मिले हुए खज़ानों को देखो और यूज़ करो - स्व के प्रति भी, औरों के प्रति भी। महादानी अर्थात् सदा अखण्ड लंगर चलता रहे। एक दिन किया और फिर एक मास बाद किया तो महादानी नहीं कहेंगे। महादानी अर्थात् सदा भण्डारा चलता रहे। सदा भरपूर। जैसे बाप का भण्डारा सदा चलता रहता हे ना। रोज देते हैं। तो बच्चों का काम भी है रोज देना। यह भण्डारा खुला होगा तो चोर नहीं आयेगा। बन्द रखेंगे तो चोर आ जायेंगे। वैसे भी जितने ज्यादा ताले बनायें हैं उतने ज्यादा चोर हो गये हैं। पहले खुले खज़ानें थे तो इतने चोर नहीं थे। तो सदा भण्डारा खुला रहे। अभी तक जो हुआ उसको फुल स्टॉप। बीती को चिन्तन में न लाओ इसको कहा जाता है - तीव्र पुरूषार्थ। अगर बीती को चिन्तन करते तो समय, शक्ति, संकल्प सब वेस्ट हो जाता है - अभी वेस्ट करने का समय नहीं है। संगम युग की दो घड़ी अर्थात् दो सेकण्ड भी वेस्ट की तो अनेक वर्ष वेस्ट कर दिये। संगम की वैल्यू को जानते हो ना! संगम का एक सेकण्ड कितने वर्षों के बराबर है? तो एक दो सेकण्ड नहीं गँवाया लेकिन अनेक वर्ष गँवा दिये। इसलिए अब फुलस्टॉप लगाओ। जो फुलस्टॉप लगाना जानता है वह सदा फुल रहेगा।

स्व परिवर्तन से धरती परिवर्तन

2. सदा अपनी शुभ भावना से वृद्धि करते रहते हो? कैसी भी आत्मायें हो लेकिन सदा हर आत्मा के प्रति शुभ भावना रखो। शुभ भावना सफलता को प्राप्त करायेगी। शुभ भावना से सेवा करने का अनुभव है? शुभ भावना अर्थात् रहम दिल। जैसे बाप अपकारियों पर उपकारी है ऐसे ही आपके सामने कैसी भी आत्मा हो लेकिन अपने रहम की वृत्ति से, शुभ भावना से उसे परिवर्त्तन कर दो। जब साइन्स वाले रेत में खेती पैदा कर सकते हैं तो क्या साइलेन्स वाले धरती का परिवर्तन नहीं कर सकते! संकल्प भी सृष्टि बना देता है। इसलिए सदा धरती को परिवर्तन करने की शुभ भावना हो। अपनी चढ़ती कला के वायब्रेशन द्वारा धरती का परिवर्तन करते चलो। स्व परिवर्तन से धरती परिवर्तन हो जायेगी। धरती में हल चलाने वाले हो ना। थकने वाले तो नहीं? हल चलाने वाले अच्छे अथक होते हैं, कलराठी जमीन को भी हरा-भरा कर देते हैं। अब दिलशिकस्त नहीं होना, दिलखुश रहना तो आपकी खुशी सबको स्वत: ही आकर्षित करेगी।

मायाजीत की दासी `माया'

3. सदा अपने को `अननोन बट वेरी वैल नोन' योद्धा समझते हुए युद्ध के मैदान पर मायाजीत बन करके रहते हो? साधारण रीति से बैठे हुए हो, चलते हो, खाते हो लेकिन चलते-फिरते भी माया से युद्ध कर विजयी बनते जा रहे हो। बाहर से कुछ भी कर रहे हो लेकिन अन्दर में माया पर जीत पहन विश्व का राज्य ले रहे हो। तो अननोन हुए ना। जब प्रत्यक्षता होगी तो सब अनुभव करेंगे कि यह कौन थे और क्या कर रहे थे। जिसके साथ सर्वशक्तिवान बाप है उसकी विजय निश्चित है। पाण्डवों का पति सर्वशक्तिवान है इसलिए पाण्डव सदा विजयी रहे। साथ कभी नहीं छोड़ना, अकेले हो जायेंगे तो माया वार करेगी। बाप के साथ रहेंगे तो माया बलिहार जायेगी। मायाजीत के आगे माया दासी बनकर नमस्कार करेगी। माया के मेले में, बाप साथी को छोड़ नहीं देना। अगर साथी छूटा तो रास्ता भूल जायेंगे। फिर चिल्लाना पड़ेगा। सदा माया को नमस्कार कराना, वार अन्दर को नहीं आने देना।